Wednesday, September 25, 2013

सिटी ब्यूटीफुल में बांसुरी की तान

संगीत की दुनिया में बांसुरी वादन एक सहज विधा है। लेकिन सिद्धहस्त होने के लिए किसी गुरु की जरूरत तो होती ही है। सिटी ब्यूटीफुल में बांसुरी वादन के गुर सिखाने वाले स्थापित संस्थान भी हैं, लेकिन सेक्टर 22-बी में साईं स्वीट्स के सामने कंचन नाम के शख्स अक्सर बांसुरी बजाते हुए शॉपिंग के लिए निकले लोगों को मिल जाते हैं। उनके पास 'बांसुरी सीखें' पुस्तक और बांसुरियां खरीदने के लिए होती हैं।
  खुले बाजार में आखिर अपने फन से लोगों को किस तरह वाकिफ करवा रहे हैं? इस सवाल पर करीब 36 साल पूरे कर चुके कंचन सीधे 'बांसुरी सीखें'  पुस्तक पर आ जाते हैं और बताते हैं कि मेरे पिता जुगलाल बांसुरी के मास्टर थे और यह पुस्तक उन्होंने लिखी थी। बांसुरी के साधकों के लिए यह उपयोगी है। यूं तो संगीत में कई राग हैं, लेकिन इस पुस्तक में 11 उपयोगी राग हैं। मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन जो विरासत वे मुझे सौंप गए हैं, मैं उसे आगे बढ़ाने के लिए लोगों को सिखा रहा हूं। साईं स्वीट्स के सामने की मेरी यह बैठक दस साल पुरानी है और अब मैं इसे एक मंच की तरह देखता हूं। मैं यहां रियाज के लिए बांसुरी की तान छेड़ता हूं और सीखने के शौकीन लोग चले आते हैं। कुछ लोग सीखने के लिए बांसुरी और पुस्तक खरीद ले जाते हैं, इससे मेरी जीविका भी चल जाती है। रियाज करते-करते 13 रागों पर मेरी महारत हो गई है। किसी बड़े पुरस्कार या सम्मान का मेरा सपना नहीं है, लेकिन यही हसरत है कि अधिक से अधिक लोगों को गुर बांट दूं।
  होठों पर आई सरगम तो छूट गए सारे गम,
  बस एक ही हसरत है बाकी,
  गुर बांटते ही टूटे यह दम 

कंचन के अनुसार बांसुरी वादन उनके पिता और उनका शौक था, लेकिन बाद में यह आजीविका में बदल गया। बांसुरी सीखने वाले उन्हें पारिश्रमिक दे देते हैं। निजी जलसों में आंमंत्रित किया जाता है तो वहां भी पारिश्रमिक मिल जाता है। बांसुरी पर पहले सरगम सिखाई जाती है और बाद में राग सिखाए जाते हैं। सीखने वाले की मेहनत और लगन ही सफलता का समय तय करती है।

Saturday, September 14, 2013

हिंदी रहेगी तो हम रहेंगे

 -डॉ. राजकुमार मलिक

 हमारे देश में सितंबर का महीना वर्षा की समाप्ति पर सुहावनी शरद ऋतु के आगमन और उसके स्वागत का महीना तो होता ही है, पांच सितंबर को शिक्षक दिवस और 14 सितंबर को हिंदी दिवस के मनाए जाने के कारण यह शिक्षा, भाषाई संस्कृति और राष्ट्रीय गौरव के अहसास का महीना भी हो जाता है। इस समय हमारा संदर्भ हिंदी दिवस का है और मैं स्मरण कराना चाहता हूं कि इसी 14 सितंबर के दिन ही हमारे संविधान के सूत्रधारों ने यह स्वीकार किया था कि हमारी राजभाषा देवनागरी लिपी में हिंदी होगी। राजभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा अचानक या बड़ी आसानी के साथ नहीं हो गई थी। इसके पीछे संघर्ष का लम्बा इतिहास है। यह संघर्ष मुगल काल में, मुगल प्रशासकों की फारसी और उर्दू को बलात् सरकारी कामकाज में प्रतिष्ठित करने के विरुद्ध भी हुआ था, जो अंग्रेजी भाषा में सरकारी कामकाज करने के लिए देश की जनता को विवश कर रही थी, जो अधिकांश में निरक्षर थी या अद्र्ध शिक्षित थी। यह सब विदित है कि जब कोई विदेशी शक्ति किसी देश पर अधिकार कर लेती है, तो उसे उस देश के निवासियों के द्वारा विद्रोह किए जाने के खतरे का भय निरंतर सताया करता है। मुगलों को भी यह विद्रोह झेलना पड़ा था और अंग्रेजों को भी। ऐसी स्थिति में विदेशी शासक पराजित देश की जनता की मानसिकता अपने स्वार्थों के अनुकूल ढाल लेने की कोशिश करते हैं। मुगलों ने फारसी उर्दू पढ़े हुए मुंशियों-नवाबों और सिपहसालारों की एक बहुत बड़ी तादाद पैदा कर दी थी और अंग्रेजों ने टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर अभिमान करने वाले बाबू लोगों की भर्ती को बढ़ावा देकर, यह काम पूरा किया था। कलकत्ता में जॉन गिलक्राइस्ट के द्वारा 20वीं शताब्दी में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी। उनकी कोशिश थी कि भारतवर्ष की संस्कृति से इन बाबू लोगों को काट कर रख दिया जाए, ताकि वे अपनी चमड़ी से हिंदुस्तानी रहें, किंतु मानसिकता से वे अंग्रेज बन जाएं। स्वदेश के प्रति अनुराग समाप्त करने का यह एक सुनियोजित षड्यंत्र था। लार्ड मैकॉले की शिक्षा नीति ने इसमें रही-सही कमी को पूरा कर डाला।
       दुर्भाग्य है कि हम स्वतंत्र होकर भी सांस्कृतिक रूप में परतंत्र को ढोये चले जा रहे हैं। हम पढ़े-लिखे लोगों से तो19वीं शताब्दी की बिहार की वह अनपढ़ जनता श्रेष्ठ मानी जा सकती है, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करते हुए यह मांग की थी कि अदालती कामकाज अंग्रेजी में नहीं, उनकी अपनी भाषा में होना चाहिए। और अंग्रेजों को यह बात माननी पड़ी थी। उस सरकार ने वहां राष्ट्रीय एकता में फूट डालते हुए सरकारी कामकाज के लिए हिंदी को नहीं, अपितु उर्दू को मान्यता दी। उसके कुछ समय बाद अवध प्रांत में, जो इस समय उत्तर प्रदेश कहलाता है, अदालती कामकाज के लिए हिंदी को माध्यम के रूप में अंग्रेज सरकार को स्वीकार करना पड़ा था। 
       महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश ने जो लड़ाई लड़ी थी, उसमें वन्दे मातरम् का राष्ट्रगान/राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति प्रबल अनुराग और हिंदी भाषा की देशव्यापी स्वीकृति हथियार बन कर सामने आई थी। इसी का परिणाम था कि गांवों में रहने वाली अनपढ़ और खेतों में काम करने वाली जनता राष्ट्रीय आंदोलन में जुड़ सकी। यदि स्वतंत्रता-संघर्ष अंग्रेजी माध्यम को स्वीकर कर चलता, जो यह संघर्ष अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबुओं और मुट्ठी भर शहरी जनता का संघर्ष बनकर रह जाता। इसलिए हिंदी और हिंदुस्तान उस समय परस्पर पर्याय बन गए थे। 
       स्वतंत्रता-प्राप्ति तक तो यह सब कुछ अच्छा और शोभन लगा, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारी संविधान सभा गठित हुई, उसमें भाषा के प्रश्न को लेकर कुछ अंग्रेजी पसंद लोगों का नेतृत्व करते हुए नेहरू ने हिंदी के ऊपर अंग्रेजी को प्रतिष्ठा दी। स्मरण रहे संविधान सभा में जब पहली बार भाषा के प्रश्न पर मतदान हुआ था तो नेहरू जी के समर्थन के बावजूद अंग्रेजी के समर्थन में कम और हिंदी के समर्थन में अधिक मत पड़े थे। नेहरू जी ने उस दिन के मतदान को निरस्त करा कर फिर मतदान करवाया। दोबारा हुए मतदान में हिंदी और अंग्रेजी के मत बराबर-बराबर हो गए थे और हिंदी के विरुद्ध षड्यंत्र यहीं से सफल हुआ। यह मान लिया गया कि 15 वर्षों के लिए हिंदी को अपना वर्चस्व सरकारी कामकाज में स्थगित करना पड़ेगा। उस समय राजा जी के नेतृत्व में तामिलनाडु भी हिंदी के पक्ष में था। इतिहास साक्षी है कि उसके बाद न जाने कितनी सरकारें आईं न जाने कितने प्रधानमंत्री बदले, लेकिन वोट की राजनीति में हिंदी को अपना गौरवमय पद प्राप्त नहीं होने दिया। जिन 15 वर्षों के लिए हिंदी को प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया था वे द्रौपदी के चीर की तरह आज भी चल रहे हैं और उनके समाप्त होने की कोई आशा दिखाई नहीं देती। हुआ सिर्फ इतना है कि सरकारी प्रचार तंत्र का एक हिस्सा केंद्रीय हिंदी समितियों, संसदीय प्रतिनिधि मंडलों, राजभाषा कार्यान्वयन समितियों, राजभाषा प्रकोष्ठों, हिंदी अधिकारियों, हिंदी अनुवादकों की नियुक्तियों और गठनों के रूप में उभर आया है।
       दुर्भाग्य की बात है कि इन प्रकोष्ठों, हिंदी अधिकारियों और हिंदी अनुवादकों को शक्ति कोई नहीं दी गई है। वे अधिकार से वंचित हैं। उन्हें अंग्रेजी-पसंद अधिकारियों और बाबुओं से अनुनय और विनय करनी पड़ती है और उनके उपहास को झेलना पड़ता है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि केंद्र में राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है कि वह अपनी भाषा की नीति को दृढ़ता से लागू कर सकें। स्मरण कीजिए कि उन यहूदियों ने, जो कई शताब्दियों तक यूरोप में खानाबदोश रहे, जिनके पास कहने के लिए न तो अपना स्वदेश था, न रहने के लिए एक इंच जमीन, उन्हें जब इजरायल के रूप में अपना देश मिला, तो उन्होंने घोषणा की कि उनकी मातृभाषा हिब्रू है और यही उस दिन से सरकारी-कामकाज की भाषा होगी। हिब्रू जो शताब्दियों पुरानी मृत भाषा थी, रातों-रात सरकारी कामकाज की जीवंत भाषा बन गई और प्रत्येक निवासी के लिए यह गर्व की बात हो गई। और हम हैं कि पूरी निर्लज्जता के साथ समय-समय पर घोषित करते रहते हैं कि हिंदी किसी पर लादी नहीं जाएगी। हमें याद रखना होगा कि यदि हमारी संस्कृति रहेगी तो हमारा देश होगा; हमारी स्वतंत्रता होगी और हमारी संस्कृति, राष्ट्रीय एकता, हमारा राष्ट्रीय गौरव, हमारी राष्ट्रीय पहचान तभी सुरक्षित रह सकेगी जब हिंदी को उसका गौरवमय पद राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में पूरी तरह मिल जाएगा। 


Wednesday, September 4, 2013

मनुष्य रूप में नारायण ही हैं गुरु

 -डॉ. राजकुमार मलिक

       भारतीय समाज में कई प्रकार के पर्व होते हैं। होली, दिवाली, विजय दशमी, ईद, क्रिसमस, बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती जैसे पर्वों की प्रकृति धार्मिक-सांस्कृतिक है। कुछ पर्व सामाजिक होते हैं जैसे फादर्स डे, मदर्स डे आदि। इन सामाजिक पर्वों का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है। ये सामाजिक उपयोगिता की तात्कालिकता के आधार पर मनाए जाते हैं। 'अध्यापक दिवस' एक ऐसा पर्व है, जो सांस्कृतिक भी है और सामाजिक भी है। गुरु-शिष्य के पवित्र संबंधों की प्राचीन काल से आ रही परंपरा इसे सांस्कृतिक चरित्र देती है और भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन से जुड़कर यह आधुनिक कालीन परंपरा सामाजिक बन जाती है। इसलिए इसका विशेष महत्व है।
       प्राचीन भारतीय समाज में अध्यापक के लिए अनेक शब्द प्रचलित थे। कुलपति किसी गुरुकुल का प्रधान अध्यापक होता था। वह दस हजार विद्यार्थियों के भोजन एवं आवास के प्रबंध के साथ-साथ उनकी शिक्षा की व्यवस्था भी करता था। इस व्यवस्था के आर्थिक स्रोत की भनक तक किसी विद्यार्थी को नहीं लगती थी, हालांकि ये आर्थिक स्रोत 'दान' पर ही आधारित होते थे। गुरुकुल का प्राथमिक शिक्षक 'उपाध्याय' कहलाता था। सभी अध्यापक ज्ञान की गुरुता के कारण 'गुरु' कहलाते थे।
      मध्यकाल में 'गुरु' इतना आदरणीय और श्रद्धेय बना कि उसको 'गुरु' संज्ञा के साथ 'देव' संज्ञा भी प्रत्यय के रूप में जोड़ दी गई। 'देव' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की 'दीव्' और 'दा' इन दो क्रियाओं से हुई है। इसलिए 'गुरुदेव' शब्द के दो अर्थ हो जाते हैं-'वह गुरु जो ज्ञान और चरित्र की गरिमा के कारण भास्वर होता है या चमकता है। इसका 'दा' क्रिया के कारण अर्थ होता है- जो विद्यार्थी को विद्या ही नहीं, भोजन, वस्त्र और आवास आदि देता है।' इन दोनों अर्थों में गुरु देता था, लेता कुछ नहीं था।
       मध्यकाल में परवर्ती बौद्धों(सिद्धों) ने तंत्र विद्या के विकास के लिए कुछ गिने-चुने शिष्यों को ही दीक्षा देना आरंभ किया। उन्होंने अपनी विद्या को 'कूट भाषा' (कोड) में प्रकट किया। इसका अर्थ गुप्त रखने के लिए उन्होंने गुरु-शिष्य संबंधों को विशेष रूप दिया और गुरु-शिष्य की गुरुकुलीय परंपरा को वे विशुद्ध धार्मिक तथा कूट भाषिक रूप में खींच ले गए। तब से ही गुरु का पद ज्ञान और विवेक के रास्ते से हटा और तांत्रिक एवं चमत्कारी रूप में शिष्यों को आकर्षित करने लगा। मठ बनने लगे और गुरु-शिष्य की पवित्र परंपरा में विकार आने लगे। तांत्रिकों में अनेक कूट यौन मार्गीय भी बने। यही वजह है कि भारतीय आस्तिक बुद्धि को 'गुरु' बनाने की आवश्यकता पडऩे लगी। इसमें लोगों ने धोखे भी खाए।
     कबीरदास ने इसीलिए सावधान किया था-
जा का गुरु भी अंधड़ा चेला खरा अंधंत।
अंधेर अंधा ठेलिया दोऊ कूप पड़ंत।।
लेकिन वे सच्चे गुरु की वास्तविकता से अभिभूत थे। गुरु शिष्य के संबंध को वे इस रूप में देख रहा था-
गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है, गढि़-गढि़ काढै खोट।
अंतर हाथ सहारि दे, बाहिर बाहै चोट।।
    शिष्य के चरित्र को उठाना, उसका परिष्कार करना, उसको ज्ञानवद्र्धक बनाना गुरु का काम हो गया। गुरु को पिता और शिष्य को पुत्र/ पुत्री के समान 'महाभारत' में बताया गया है। आधुनिक काल में 'गुरु' के वेतनभोगी बन जाने के कारण अध्यापक के रूप में उसका जो संस्करण सामने आया है, वह 'प्रोफेशनल' अधिक है। अध्यापन के व्यवसाय हो जाने के कारण अध्यापक का बिम्ब भी छोटा हुआ है, उसकी कर्तव्य परायणता में भी ह्रास हुआ है। आरक्षण से भी ज्ञान के मानक में ढीलापन आया है। वृत्ति जीवी हो जाने से अध्यापक एक ओर मजदूर की तरह 'ट्रेड-यूनियनिस्ट' हुआ है और उसमें तिकड़म, पद-लोलुपता, चाटुकारिता, विद्यार्थी-शोषण, ट्यूशन, परीक्षकत्व में बे-ईमानी आदि अनेक दुर्गुण भी व्याप्त हुए हैं।
      शिक्षा और शिक्षा-संस्थाओं में सत्ता की राजनीति की घुसपैठ ने भी शिक्षा के आदर्श और शिक्षकों के चरित्र को झटका दिया है। इसका ही परिणाम है कि विद्यार्थियों और अध्यापकों के बीच मारपीट तक की घटनाएं सामने आ रही हैं।
       लेकिन, अभी भी ऐसे अध्यापकों की कमी नहीं है, जिनके ज्ञान की समृद्धि और चरित्र की पवित्रता के सामने विद्यार्थियों का सिर श्रद्धा से स्वत: झुक जाता है। ऐसे अध्यापक अपने ज्ञान और आचरण दोनों से विद्यार्थियों को शिक्षित करते हैं। 'अध्यापक दिवस' की सार्थकता ऐसे अध्यापकों को याद करने और उनसे प्रेरणा लेने में निहित है।

Friday, August 30, 2013

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून


‘बिन मांगे वायु मिली, बिन मांगे ही नीर, मोल न समझा आदमी, यही प्रकृति की पीर...।’ इस वक्तव्य को भले दूसरे न समझें लेकिन इन दिनों ट्राईसिटी के लोग समझने लग पड़े हैं कि पानी बहुत ही अनमोल है। पिछले कुछ दिनों से पानी के संकट से जूझ रहे शहरवासी वर्षों पुराने लिखे दोहे
‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून...। ’ के अर्थों को भली भांति समझ गए हैं। भास्कर तो सदा ही लोगों को पानी के महत्व के बारे में जागरूक करता रहता है। लोग जुड़े भी हैं। लेकिन हमें इतने में ही सब्र नहीं करना चाहिए। ‘जल है तो कल है...’ इस बात को हमारे पूर्वज भली-भांति जानते थे। यही कारण है कि उन्होंने जल की महिमा का बखान वेद -वाड्.मय और सभी धर्म ग्रंथों में किया है। हमें जल को बचाने का उपक्रम करना चाहिए। जल के महत्व को समझकर सावधानीपूर्वक इसका प्रयोग करना चाहिए ताकि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जल को बचा कर रख सकें। हम सभी पानी को सबसे कम प्राथमिकता देते हैं  जबकि जल के बिना किसी भी जीव का जीवित रह पाना असंभव है।
जल में अखण्ड प्रवाह, दया, करुणा, उदारता , परोपकार और शीतलता , ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं । मनुष्य कितना भी दुखी क्यों न हो, ठंडे जल से स्नान करते ही वह शान्त हो जाता है। यही नहीं जल के अलग-अलग तरह से सेवन करने से सभी तरह के रोग में लाभ मिलता है।
 ‘मनुस्मृति’ में कहा गया है कि संसार की उत्पत्ति जल से हुई ‘अप एव ससर्जादौ’। जल जीवन का ही नहीं उसके अधिपति परमात्मा का भी आधार है। पुराणों के विवरण प्रसिद्ध है कि संसार की उत्पत्ति के अधिष्ठाता ब्रह्मा जल से ही उत्पन्न हुए। वे जिस कमल पर बैठे प्रकट हुए थे वह विष्णु की नाभि या संकल्प से निकला था और विष्णु गहरे सागर में शेष शय्या पर सोए हुए थे.. उनका नाम ‘नारायण’ है। ‘नार’ अर्थात् जल और ‘अयन’ अर्थात् घर।
 संहार या कल्याण के देवता शिव भी ब्रह्मा के आंसुओं से ही 'हर हर' कहते हुए निकले बताए जाते हैं। शिव की प्रत्यक्ष आठ मूर्तियों में पहली मूर्ति जल को ही माना गया है। सृष्टि, जीवन और संहार तीनों के अधिपति देवताओं के जल से ही जन्म लेने की तो यह एक बानगी है। वर्ना समुद्र मंथन में से निकले चौदह रत्नों समेत विष और अमृत भी जल की ही देन है। भारतीय धर्म में माने गए दस अवतारों में से शुरू के तीन स्वरुप मत्स्य, कश्यप और वराह भी सागर के गर्भ से ही प्रकट होते है। तैंतीस मुख्य देवताओं में से आठ का सीधा सम्बन्ध-उनके जन्म से हो या कर्म से पूरी तरह जल से ही है। इसलिए सारभूत तथ्य यह है कि जल जीवन ही नहीं धर्म संस्कृति और आत्मचेतना का भी आधार है। प्राय: सभी प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही बसे हैं।
यहां मैं एक बात और करना चाहता हूं कि वेदों के करीब बीस हजार मन्त्रों में दो हजार से ज्यादा मंत्र जल और उससे जुड़े देवताओ के बारे में हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि महाप्रलय के समय सब कुछ नष्ट हो जाएगा और केवल जल ही शेष रह जाएगा है जिसे ‘एकार्णव’ कहते हैं। ‘जल’ वस्तुत: वह ‘तत्व’ है जो सृष्टि के आदि से अन्त तक मौजूद रहता है। ऐसा तत्व केवल ‘परब्रह्म’ ही हो सकता है। यह वह महाभूत नहीं है जो ‘तामस-अहंकार’ के कारण पैदा होता है। बल्कि वह ‘तत्व’ है जो परब्रह्म की वाचक है एवं जिसे ब्रह्मा-विष्णु-तथा रुद्र का ‘रसमय-रूप’ माना गया है। संभवत: इसी कारण ‘जल’ के लिए मुख्यत: ‘अप’ या ‘आप:’ शब्द का प्रयोग किया गया है और वेदों के मंत्रों में इसे ‘आपो देवता’ कहा गया है। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को मानते हैं कि सृष्टि से पहले कोई न कोई ‘नित्य तत्व’ अवश्य रहता है। ‘अथर्ववेद’ में जल को आरोग्य का आधार माना गया है। जल की प्रार्थना ओषधि के रूप में अनेक मंत्रों में की गई है। ‘स्कंदपुराण’ में जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए तीर्थाटन की उचित विधि तक बताई गई है।
आज नदियों का पानी या तो प्रदूषित है या सूख गया है। वर्षा का अपार जल समुद्र में बह जाने दिया जा रहा है। उसके संरक्षण से पूरे साल भर खेतों में सिंचाई और पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है। इसके लिए सरकारी आंखों में पानीदार दूरदृष्टि चाहिए। वह अनुपस्थित है। दक्षिण से उत्तर तक अनेक राज्यों में पानी और नदियों के अधिकार पर लड़ाई छिड़ी हुई है। दक्षिण में कावेरी-जल पर विवाद है, मध्यप्रदेश-गुजरात-महाराष्ट्र में नर्मदा के जल पर विवाद है। पंजाब-हरियाणा-राजस्थान-हिमाचल में जल संपदा पर जब कब विवाद होता रहता है। लेकिन, जो पानी यों ही बह जाता है, उसके संरक्षण पर कोई ठोस पहल नहीं होती दिखाई पड़ रही है। अंत में ट्राईसिटी के लोगों से मैं इतना ही कहूंगा -
ईश्वर का वरदान है जल
जल बिना नहीं जीवन संभव । 
जल को यूं न व्यर्थ गंवाओ
इसकी एक-एक बूंद बचाओ । 

Thursday, August 15, 2013

सत्य कीमत मांगता है

 67 वें स्वतंत्रता दिवस पर विशेष


कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जब खुशी और अवसाद एक साथ मन में उदित होते हैं। भारत का 67 वां स्वतंत्रता दिवस का अवसर कुछ ऐसा ही है। जिस स्वतंत्रता को भारत के हजारों- लाखों लोगों ने कुर्बानियां देकर अर्जित किया था और देशहित में सर्वस्व लुटाकर तिरंगे को गर्वोन्नत शीश के साथ लहराने का जो शुभ अवसर पाया था, उसे हमारे राष्ट्र नायकों ने अपने क्षुद्र स्वार्थों और सत्ता की हविश ने तार-तार कर डाला है। याद रखने की बात यह है कि पहले स्वातंत्र्य-पर्व पर ही जनता को इन राजनेताओं की पापबुद्धि के प्रति सचेत कर दिया गया था- पहरुए ! जागते रहना।
            चिंतनशील कवि की भाव धारा बार-बार छली गई। न हमारे सीमांत निर्भय हो पाए और न इस देश की जनता ही सुख की नींद सो पाई। स्वतंत्रता-सेनानियों ने बहुत विश्वास के साथ यह लोकतंत्र हमको सौंपा था- हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के। इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के । आज उस लोकतंत्र में भुखमरी है, भूखों की आत्महत्याएं हैं, जगह-जगह देश के भूगोल का टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजन है, आगजनियां हैं, गोलीबारी है, कफ्र्यू है, लाठीचार्ज है, स्थगित संसद है, अरबों के घोटाले हैं, चोरी के ऊपर सीनाजोरी है। यदि स्वतंत्रता किसी के पास है, तो लाल बत्तियों के पास है, सरकारी ओहदों और वर्दियों के पास है। जो उनसे टकराता है, चूर-चूर हो जाता है। वह चाहे खेमका हो या दुर्गाशक्ति नागपाल हो। आय से अधिक संपत्ति रखने वालों का कुछ नहीं बिगड़ता। राजसत्ता में कोई किसी को बनाए रखता है और बदले में वह उसे सजा पाने से बचाए रहता है। इसलिए यह आजादी अधूरी-अधूरी-सी है। एक पूरी आजादी का इंतजार है।
            पूरी आजादी का इंतजार लोकतंत्र के सभी स्तंभों से हटकर है। इस महंगाई में जब कि प्याज 60-70 रुपए का एक किलो बिक रहा है(वास्तविकता में तौल में वह आठ सौ ग्राम ही होता है- बरास्ते मेहरबानी प्रशासनिक कृपालुता के) , न्याय या तो दुर्लभ है या बहुत महंगा है। सब जानते हैं वकीलों की फीसों के बारे में। वहां आयकर वाले भी हाथ नहीं डालते। एक बचा-खुचा रास्ता जनमत का है। वह रास्ता अखबारों से होकर जाता है। अखबार वाले भी कम नहीं हैं। वे वाट जोहा करते हैं उस परमिट की, जो सत्ता के गलियारों में ले जाता है। मतलब यह कि हर ईंट हिलाने से हिलती, हर जोड़ जरा कमजोर सा है कल गिर जाए या आज गिरे, गिरने-गिरने का शोर सा है। इस अंजाम पर आ पहुंची है हमारे लोकतंत्र की बुलंद इमारत, जिसकी नींव 15 अगस्त, 1947 को रखी गई है।
            सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ ?  हमारी संसद बाहुबलियों और अरबपतियों की बंदिनी क्यों हो गई ? ‘गरीबी हटाओ के नारे खोखले क्यों निकले ? ‘मेरा भारत महान वाक्य परिहास की विषयवस्तु क्यों बनकर रह गया ? राष्ट्रीय एकता और एकजुटता क्यों परास्त हो गई ? रिश्वत निंदनीय क्यों नहीं रह गई ? ‘सब चलता है के भरतवाक्य ने हमारी नैतिकता को क्यों निगल लिया ? गांधी जी का अधनंगा बदन हमारा आदर्श क्यों नहीं बना रह सका ? त्यागशील और निर्भय लाल बहादुर शास्त्री हमारे स्मरणीय श्रद्धा-पुरुष क्यों नहीं बने रह सके ? केवल चिनारी-पीढिय़ां ही क्यों श्रद्धेय बनकर रह गईं ? ‘कई सवाल हैं, जो हमारी क्षत-विक्षत स्वतंत्रता उठाती है और हम सबसे इनका जवाब चाहती है।
            हम सब जवाबदेह हैं कि हमने स्वतंत्रता को, लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए क्या किया है ? सब अपनी अंतरात्मा से पूछें कि हमने अपने कर्तव्य कितने निभाए हैं ? हमने कितनी सांसें केवल देशहित में सोचते और काम करते हुए ली हैं ? सत्य कीमत मांगता है और देशहित का सच उससे बड़ी कीमत मांगता है। राष्ट्रधर्म का नीति-वचन है कि कुल के लिए एक के, ग्राम के लिए कुल के, जनपद के लिए ग्राम के, देश के लिए जनपद के हित को छोड़ देना चाहिए। क्या हम कुछ भी छोडऩे के लिए तैयार हैं ?


-डॉ. राजकुमार मलिक