Wednesday, September 4, 2013

मनुष्य रूप में नारायण ही हैं गुरु

 -डॉ. राजकुमार मलिक

       भारतीय समाज में कई प्रकार के पर्व होते हैं। होली, दिवाली, विजय दशमी, ईद, क्रिसमस, बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती जैसे पर्वों की प्रकृति धार्मिक-सांस्कृतिक है। कुछ पर्व सामाजिक होते हैं जैसे फादर्स डे, मदर्स डे आदि। इन सामाजिक पर्वों का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है। ये सामाजिक उपयोगिता की तात्कालिकता के आधार पर मनाए जाते हैं। 'अध्यापक दिवस' एक ऐसा पर्व है, जो सांस्कृतिक भी है और सामाजिक भी है। गुरु-शिष्य के पवित्र संबंधों की प्राचीन काल से आ रही परंपरा इसे सांस्कृतिक चरित्र देती है और भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन से जुड़कर यह आधुनिक कालीन परंपरा सामाजिक बन जाती है। इसलिए इसका विशेष महत्व है।
       प्राचीन भारतीय समाज में अध्यापक के लिए अनेक शब्द प्रचलित थे। कुलपति किसी गुरुकुल का प्रधान अध्यापक होता था। वह दस हजार विद्यार्थियों के भोजन एवं आवास के प्रबंध के साथ-साथ उनकी शिक्षा की व्यवस्था भी करता था। इस व्यवस्था के आर्थिक स्रोत की भनक तक किसी विद्यार्थी को नहीं लगती थी, हालांकि ये आर्थिक स्रोत 'दान' पर ही आधारित होते थे। गुरुकुल का प्राथमिक शिक्षक 'उपाध्याय' कहलाता था। सभी अध्यापक ज्ञान की गुरुता के कारण 'गुरु' कहलाते थे।
      मध्यकाल में 'गुरु' इतना आदरणीय और श्रद्धेय बना कि उसको 'गुरु' संज्ञा के साथ 'देव' संज्ञा भी प्रत्यय के रूप में जोड़ दी गई। 'देव' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की 'दीव्' और 'दा' इन दो क्रियाओं से हुई है। इसलिए 'गुरुदेव' शब्द के दो अर्थ हो जाते हैं-'वह गुरु जो ज्ञान और चरित्र की गरिमा के कारण भास्वर होता है या चमकता है। इसका 'दा' क्रिया के कारण अर्थ होता है- जो विद्यार्थी को विद्या ही नहीं, भोजन, वस्त्र और आवास आदि देता है।' इन दोनों अर्थों में गुरु देता था, लेता कुछ नहीं था।
       मध्यकाल में परवर्ती बौद्धों(सिद्धों) ने तंत्र विद्या के विकास के लिए कुछ गिने-चुने शिष्यों को ही दीक्षा देना आरंभ किया। उन्होंने अपनी विद्या को 'कूट भाषा' (कोड) में प्रकट किया। इसका अर्थ गुप्त रखने के लिए उन्होंने गुरु-शिष्य संबंधों को विशेष रूप दिया और गुरु-शिष्य की गुरुकुलीय परंपरा को वे विशुद्ध धार्मिक तथा कूट भाषिक रूप में खींच ले गए। तब से ही गुरु का पद ज्ञान और विवेक के रास्ते से हटा और तांत्रिक एवं चमत्कारी रूप में शिष्यों को आकर्षित करने लगा। मठ बनने लगे और गुरु-शिष्य की पवित्र परंपरा में विकार आने लगे। तांत्रिकों में अनेक कूट यौन मार्गीय भी बने। यही वजह है कि भारतीय आस्तिक बुद्धि को 'गुरु' बनाने की आवश्यकता पडऩे लगी। इसमें लोगों ने धोखे भी खाए।
     कबीरदास ने इसीलिए सावधान किया था-
जा का गुरु भी अंधड़ा चेला खरा अंधंत।
अंधेर अंधा ठेलिया दोऊ कूप पड़ंत।।
लेकिन वे सच्चे गुरु की वास्तविकता से अभिभूत थे। गुरु शिष्य के संबंध को वे इस रूप में देख रहा था-
गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है, गढि़-गढि़ काढै खोट।
अंतर हाथ सहारि दे, बाहिर बाहै चोट।।
    शिष्य के चरित्र को उठाना, उसका परिष्कार करना, उसको ज्ञानवद्र्धक बनाना गुरु का काम हो गया। गुरु को पिता और शिष्य को पुत्र/ पुत्री के समान 'महाभारत' में बताया गया है। आधुनिक काल में 'गुरु' के वेतनभोगी बन जाने के कारण अध्यापक के रूप में उसका जो संस्करण सामने आया है, वह 'प्रोफेशनल' अधिक है। अध्यापन के व्यवसाय हो जाने के कारण अध्यापक का बिम्ब भी छोटा हुआ है, उसकी कर्तव्य परायणता में भी ह्रास हुआ है। आरक्षण से भी ज्ञान के मानक में ढीलापन आया है। वृत्ति जीवी हो जाने से अध्यापक एक ओर मजदूर की तरह 'ट्रेड-यूनियनिस्ट' हुआ है और उसमें तिकड़म, पद-लोलुपता, चाटुकारिता, विद्यार्थी-शोषण, ट्यूशन, परीक्षकत्व में बे-ईमानी आदि अनेक दुर्गुण भी व्याप्त हुए हैं।
      शिक्षा और शिक्षा-संस्थाओं में सत्ता की राजनीति की घुसपैठ ने भी शिक्षा के आदर्श और शिक्षकों के चरित्र को झटका दिया है। इसका ही परिणाम है कि विद्यार्थियों और अध्यापकों के बीच मारपीट तक की घटनाएं सामने आ रही हैं।
       लेकिन, अभी भी ऐसे अध्यापकों की कमी नहीं है, जिनके ज्ञान की समृद्धि और चरित्र की पवित्रता के सामने विद्यार्थियों का सिर श्रद्धा से स्वत: झुक जाता है। ऐसे अध्यापक अपने ज्ञान और आचरण दोनों से विद्यार्थियों को शिक्षित करते हैं। 'अध्यापक दिवस' की सार्थकता ऐसे अध्यापकों को याद करने और उनसे प्रेरणा लेने में निहित है।

No comments:

Post a Comment