-डॉ. राजकुमार मलिक
हमारे
देश में सितंबर का महीना वर्षा की समाप्ति पर सुहावनी शरद ऋतु के आगमन और उसके
स्वागत का महीना तो होता ही है, पांच सितंबर को शिक्षक दिवस और 14 सितंबर को हिंदी दिवस के मनाए
जाने के कारण यह शिक्षा, भाषाई
संस्कृति और राष्ट्रीय गौरव के अहसास का महीना भी हो जाता है। इस समय हमारा संदर्भ
हिंदी दिवस का है और मैं स्मरण कराना चाहता हूं कि इसी 14 सितंबर के दिन ही हमारे संविधान
के सूत्रधारों ने यह स्वीकार किया था कि हमारी राजभाषा देवनागरी लिपी में हिंदी
होगी। राजभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा अचानक या बड़ी आसानी के साथ नहीं हो
गई थी। इसके पीछे संघर्ष का लम्बा इतिहास है। यह संघर्ष मुगल काल में, मुगल प्रशासकों की फारसी और उर्दू
को बलात् सरकारी कामकाज में प्रतिष्ठित करने के विरुद्ध भी हुआ था, जो अंग्रेजी भाषा में सरकारी
कामकाज करने के लिए देश की जनता को विवश कर रही थी, जो अधिकांश में निरक्षर थी या
अद्र्ध शिक्षित थी। यह सब विदित है कि जब कोई विदेशी शक्ति किसी देश पर अधिकार कर
लेती है,
तो उसे उस देश के
निवासियों के द्वारा विद्रोह किए जाने के खतरे का भय निरंतर सताया करता है। मुगलों
को भी यह विद्रोह झेलना पड़ा था और अंग्रेजों को भी। ऐसी स्थिति में विदेशी शासक
पराजित देश की जनता की मानसिकता अपने स्वार्थों के अनुकूल ढाल लेने की कोशिश करते
हैं। मुगलों ने फारसी उर्दू पढ़े हुए मुंशियों-नवाबों और सिपहसालारों की एक बहुत
बड़ी तादाद पैदा कर दी थी और अंग्रेजों ने टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर अभिमान करने
वाले बाबू लोगों की भर्ती को बढ़ावा देकर, यह काम पूरा किया था। कलकत्ता में जॉन गिलक्राइस्ट के
द्वारा 20वीं शताब्दी में फोर्ट विलियम
कॉलेज की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी। उनकी कोशिश थी कि भारतवर्ष की संस्कृति
से इन बाबू लोगों को काट कर रख दिया जाए, ताकि वे अपनी चमड़ी से हिंदुस्तानी रहें, किंतु मानसिकता से वे अंग्रेज बन
जाएं। स्वदेश के प्रति अनुराग समाप्त करने का यह एक सुनियोजित षड्यंत्र था। लार्ड
मैकॉले की शिक्षा नीति ने इसमें रही-सही कमी को पूरा कर डाला।
दुर्भाग्य
है कि हम स्वतंत्र होकर भी सांस्कृतिक रूप में परतंत्र को ढोये चले जा रहे हैं। हम
पढ़े-लिखे लोगों से तो19वीं
शताब्दी की बिहार की वह अनपढ़ जनता श्रेष्ठ मानी जा सकती है, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत
करते हुए यह मांग की थी कि अदालती कामकाज अंग्रेजी में नहीं, उनकी अपनी भाषा में होना चाहिए।
और अंग्रेजों को यह बात माननी पड़ी थी। उस सरकार ने वहां राष्ट्रीय एकता में फूट
डालते हुए सरकारी कामकाज के लिए हिंदी को नहीं, अपितु उर्दू को मान्यता दी। उसके कुछ समय बाद अवध प्रांत
में, जो इस समय उत्तर प्रदेश कहलाता है, अदालती कामकाज के लिए हिंदी को
माध्यम के रूप में अंग्रेज सरकार को स्वीकार करना पड़ा था।
महात्मा
गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश ने जो लड़ाई लड़ी थी, उसमें वन्दे मातरम् का
राष्ट्रगान/राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति प्रबल अनुराग और हिंदी भाषा की
देशव्यापी स्वीकृति हथियार बन कर सामने आई थी। इसी का परिणाम था कि गांवों में
रहने वाली अनपढ़ और खेतों में काम करने वाली जनता राष्ट्रीय आंदोलन में जुड़ सकी।
यदि स्वतंत्रता-संघर्ष अंग्रेजी माध्यम को स्वीकर कर चलता, जो यह संघर्ष अंग्रेजी पढ़े-लिखे
बाबुओं और मुट्ठी भर शहरी जनता का संघर्ष बनकर रह जाता। इसलिए हिंदी और हिंदुस्तान
उस समय परस्पर पर्याय बन गए थे।
स्वतंत्रता-प्राप्ति
तक तो यह सब कुछ अच्छा और शोभन लगा, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारी संविधान सभा गठित हुई, उसमें भाषा के प्रश्न को लेकर कुछ
अंग्रेजी पसंद लोगों का नेतृत्व करते हुए नेहरू ने हिंदी के ऊपर अंग्रेजी को
प्रतिष्ठा दी। स्मरण रहे संविधान सभा में जब पहली बार भाषा के प्रश्न पर मतदान हुआ
था तो नेहरू जी के समर्थन के बावजूद अंग्रेजी के समर्थन में कम और हिंदी के समर्थन
में अधिक मत पड़े थे। नेहरू जी ने उस दिन के मतदान को निरस्त करा कर फिर मतदान
करवाया। दोबारा हुए मतदान में हिंदी और अंग्रेजी के मत बराबर-बराबर हो गए थे और
हिंदी के विरुद्ध षड्यंत्र यहीं से सफल हुआ। यह मान लिया गया कि 15 वर्षों के लिए हिंदी को अपना
वर्चस्व सरकारी कामकाज में स्थगित करना पड़ेगा। उस समय राजा जी के नेतृत्व में
तामिलनाडु भी हिंदी के पक्ष में था। इतिहास साक्षी है कि उसके बाद न जाने कितनी
सरकारें आईं न जाने कितने प्रधानमंत्री बदले, लेकिन वोट की राजनीति में हिंदी को अपना गौरवमय पद
प्राप्त नहीं होने दिया। जिन 15 वर्षों के लिए हिंदी को प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया था वे
द्रौपदी के चीर की तरह आज भी चल रहे हैं और उनके समाप्त होने की कोई आशा दिखाई
नहीं देती। हुआ सिर्फ इतना है कि सरकारी प्रचार तंत्र का एक हिस्सा केंद्रीय हिंदी
समितियों,
संसदीय प्रतिनिधि
मंडलों,
राजभाषा कार्यान्वयन
समितियों,
राजभाषा प्रकोष्ठों, हिंदी अधिकारियों, हिंदी अनुवादकों की नियुक्तियों
और गठनों के रूप में उभर आया है।
दुर्भाग्य
की बात है कि इन प्रकोष्ठों, हिंदी
अधिकारियों और हिंदी अनुवादकों को शक्ति कोई नहीं दी गई है। वे अधिकार से वंचित
हैं। उन्हें अंग्रेजी-पसंद अधिकारियों और बाबुओं से अनुनय और विनय करनी पड़ती है
और उनके उपहास को झेलना पड़ता है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि केंद्र में राजनीतिक
इच्छाशक्ति नहीं है कि वह अपनी भाषा की नीति को दृढ़ता से लागू कर सकें। स्मरण
कीजिए कि उन यहूदियों ने, जो
कई शताब्दियों तक यूरोप में खानाबदोश रहे, जिनके पास कहने के लिए न तो अपना स्वदेश था, न रहने के लिए एक इंच जमीन, उन्हें जब इजरायल के रूप में अपना
देश मिला,
तो उन्होंने घोषणा की
कि उनकी मातृभाषा हिब्रू है और यही उस दिन से सरकारी-कामकाज की भाषा होगी। हिब्रू
जो शताब्दियों पुरानी मृत भाषा थी, रातों-रात सरकारी कामकाज की जीवंत भाषा बन गई और प्रत्येक निवासी
के लिए यह गर्व की बात हो गई। और हम हैं कि पूरी निर्लज्जता के साथ समय-समय पर
घोषित करते रहते हैं कि हिंदी किसी पर लादी नहीं जाएगी। हमें याद रखना होगा कि यदि
हमारी संस्कृति रहेगी तो हमारा देश होगा; हमारी स्वतंत्रता होगी और हमारी संस्कृति, राष्ट्रीय एकता, हमारा राष्ट्रीय गौरव, हमारी राष्ट्रीय पहचान तभी
सुरक्षित रह सकेगी जब हिंदी को उसका गौरवमय पद राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में
पूरी तरह मिल जाएगा।
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