Friday, August 30, 2013

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून


‘बिन मांगे वायु मिली, बिन मांगे ही नीर, मोल न समझा आदमी, यही प्रकृति की पीर...।’ इस वक्तव्य को भले दूसरे न समझें लेकिन इन दिनों ट्राईसिटी के लोग समझने लग पड़े हैं कि पानी बहुत ही अनमोल है। पिछले कुछ दिनों से पानी के संकट से जूझ रहे शहरवासी वर्षों पुराने लिखे दोहे
‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून...। ’ के अर्थों को भली भांति समझ गए हैं। भास्कर तो सदा ही लोगों को पानी के महत्व के बारे में जागरूक करता रहता है। लोग जुड़े भी हैं। लेकिन हमें इतने में ही सब्र नहीं करना चाहिए। ‘जल है तो कल है...’ इस बात को हमारे पूर्वज भली-भांति जानते थे। यही कारण है कि उन्होंने जल की महिमा का बखान वेद -वाड्.मय और सभी धर्म ग्रंथों में किया है। हमें जल को बचाने का उपक्रम करना चाहिए। जल के महत्व को समझकर सावधानीपूर्वक इसका प्रयोग करना चाहिए ताकि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जल को बचा कर रख सकें। हम सभी पानी को सबसे कम प्राथमिकता देते हैं  जबकि जल के बिना किसी भी जीव का जीवित रह पाना असंभव है।
जल में अखण्ड प्रवाह, दया, करुणा, उदारता , परोपकार और शीतलता , ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं । मनुष्य कितना भी दुखी क्यों न हो, ठंडे जल से स्नान करते ही वह शान्त हो जाता है। यही नहीं जल के अलग-अलग तरह से सेवन करने से सभी तरह के रोग में लाभ मिलता है।
 ‘मनुस्मृति’ में कहा गया है कि संसार की उत्पत्ति जल से हुई ‘अप एव ससर्जादौ’। जल जीवन का ही नहीं उसके अधिपति परमात्मा का भी आधार है। पुराणों के विवरण प्रसिद्ध है कि संसार की उत्पत्ति के अधिष्ठाता ब्रह्मा जल से ही उत्पन्न हुए। वे जिस कमल पर बैठे प्रकट हुए थे वह विष्णु की नाभि या संकल्प से निकला था और विष्णु गहरे सागर में शेष शय्या पर सोए हुए थे.. उनका नाम ‘नारायण’ है। ‘नार’ अर्थात् जल और ‘अयन’ अर्थात् घर।
 संहार या कल्याण के देवता शिव भी ब्रह्मा के आंसुओं से ही 'हर हर' कहते हुए निकले बताए जाते हैं। शिव की प्रत्यक्ष आठ मूर्तियों में पहली मूर्ति जल को ही माना गया है। सृष्टि, जीवन और संहार तीनों के अधिपति देवताओं के जल से ही जन्म लेने की तो यह एक बानगी है। वर्ना समुद्र मंथन में से निकले चौदह रत्नों समेत विष और अमृत भी जल की ही देन है। भारतीय धर्म में माने गए दस अवतारों में से शुरू के तीन स्वरुप मत्स्य, कश्यप और वराह भी सागर के गर्भ से ही प्रकट होते है। तैंतीस मुख्य देवताओं में से आठ का सीधा सम्बन्ध-उनके जन्म से हो या कर्म से पूरी तरह जल से ही है। इसलिए सारभूत तथ्य यह है कि जल जीवन ही नहीं धर्म संस्कृति और आत्मचेतना का भी आधार है। प्राय: सभी प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही बसे हैं।
यहां मैं एक बात और करना चाहता हूं कि वेदों के करीब बीस हजार मन्त्रों में दो हजार से ज्यादा मंत्र जल और उससे जुड़े देवताओ के बारे में हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि महाप्रलय के समय सब कुछ नष्ट हो जाएगा और केवल जल ही शेष रह जाएगा है जिसे ‘एकार्णव’ कहते हैं। ‘जल’ वस्तुत: वह ‘तत्व’ है जो सृष्टि के आदि से अन्त तक मौजूद रहता है। ऐसा तत्व केवल ‘परब्रह्म’ ही हो सकता है। यह वह महाभूत नहीं है जो ‘तामस-अहंकार’ के कारण पैदा होता है। बल्कि वह ‘तत्व’ है जो परब्रह्म की वाचक है एवं जिसे ब्रह्मा-विष्णु-तथा रुद्र का ‘रसमय-रूप’ माना गया है। संभवत: इसी कारण ‘जल’ के लिए मुख्यत: ‘अप’ या ‘आप:’ शब्द का प्रयोग किया गया है और वेदों के मंत्रों में इसे ‘आपो देवता’ कहा गया है। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को मानते हैं कि सृष्टि से पहले कोई न कोई ‘नित्य तत्व’ अवश्य रहता है। ‘अथर्ववेद’ में जल को आरोग्य का आधार माना गया है। जल की प्रार्थना ओषधि के रूप में अनेक मंत्रों में की गई है। ‘स्कंदपुराण’ में जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए तीर्थाटन की उचित विधि तक बताई गई है।
आज नदियों का पानी या तो प्रदूषित है या सूख गया है। वर्षा का अपार जल समुद्र में बह जाने दिया जा रहा है। उसके संरक्षण से पूरे साल भर खेतों में सिंचाई और पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है। इसके लिए सरकारी आंखों में पानीदार दूरदृष्टि चाहिए। वह अनुपस्थित है। दक्षिण से उत्तर तक अनेक राज्यों में पानी और नदियों के अधिकार पर लड़ाई छिड़ी हुई है। दक्षिण में कावेरी-जल पर विवाद है, मध्यप्रदेश-गुजरात-महाराष्ट्र में नर्मदा के जल पर विवाद है। पंजाब-हरियाणा-राजस्थान-हिमाचल में जल संपदा पर जब कब विवाद होता रहता है। लेकिन, जो पानी यों ही बह जाता है, उसके संरक्षण पर कोई ठोस पहल नहीं होती दिखाई पड़ रही है। अंत में ट्राईसिटी के लोगों से मैं इतना ही कहूंगा -
ईश्वर का वरदान है जल
जल बिना नहीं जीवन संभव । 
जल को यूं न व्यर्थ गंवाओ
इसकी एक-एक बूंद बचाओ । 

Thursday, August 15, 2013

सत्य कीमत मांगता है

 67 वें स्वतंत्रता दिवस पर विशेष


कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जब खुशी और अवसाद एक साथ मन में उदित होते हैं। भारत का 67 वां स्वतंत्रता दिवस का अवसर कुछ ऐसा ही है। जिस स्वतंत्रता को भारत के हजारों- लाखों लोगों ने कुर्बानियां देकर अर्जित किया था और देशहित में सर्वस्व लुटाकर तिरंगे को गर्वोन्नत शीश के साथ लहराने का जो शुभ अवसर पाया था, उसे हमारे राष्ट्र नायकों ने अपने क्षुद्र स्वार्थों और सत्ता की हविश ने तार-तार कर डाला है। याद रखने की बात यह है कि पहले स्वातंत्र्य-पर्व पर ही जनता को इन राजनेताओं की पापबुद्धि के प्रति सचेत कर दिया गया था- पहरुए ! जागते रहना।
            चिंतनशील कवि की भाव धारा बार-बार छली गई। न हमारे सीमांत निर्भय हो पाए और न इस देश की जनता ही सुख की नींद सो पाई। स्वतंत्रता-सेनानियों ने बहुत विश्वास के साथ यह लोकतंत्र हमको सौंपा था- हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के। इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के । आज उस लोकतंत्र में भुखमरी है, भूखों की आत्महत्याएं हैं, जगह-जगह देश के भूगोल का टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजन है, आगजनियां हैं, गोलीबारी है, कफ्र्यू है, लाठीचार्ज है, स्थगित संसद है, अरबों के घोटाले हैं, चोरी के ऊपर सीनाजोरी है। यदि स्वतंत्रता किसी के पास है, तो लाल बत्तियों के पास है, सरकारी ओहदों और वर्दियों के पास है। जो उनसे टकराता है, चूर-चूर हो जाता है। वह चाहे खेमका हो या दुर्गाशक्ति नागपाल हो। आय से अधिक संपत्ति रखने वालों का कुछ नहीं बिगड़ता। राजसत्ता में कोई किसी को बनाए रखता है और बदले में वह उसे सजा पाने से बचाए रहता है। इसलिए यह आजादी अधूरी-अधूरी-सी है। एक पूरी आजादी का इंतजार है।
            पूरी आजादी का इंतजार लोकतंत्र के सभी स्तंभों से हटकर है। इस महंगाई में जब कि प्याज 60-70 रुपए का एक किलो बिक रहा है(वास्तविकता में तौल में वह आठ सौ ग्राम ही होता है- बरास्ते मेहरबानी प्रशासनिक कृपालुता के) , न्याय या तो दुर्लभ है या बहुत महंगा है। सब जानते हैं वकीलों की फीसों के बारे में। वहां आयकर वाले भी हाथ नहीं डालते। एक बचा-खुचा रास्ता जनमत का है। वह रास्ता अखबारों से होकर जाता है। अखबार वाले भी कम नहीं हैं। वे वाट जोहा करते हैं उस परमिट की, जो सत्ता के गलियारों में ले जाता है। मतलब यह कि हर ईंट हिलाने से हिलती, हर जोड़ जरा कमजोर सा है कल गिर जाए या आज गिरे, गिरने-गिरने का शोर सा है। इस अंजाम पर आ पहुंची है हमारे लोकतंत्र की बुलंद इमारत, जिसकी नींव 15 अगस्त, 1947 को रखी गई है।
            सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ ?  हमारी संसद बाहुबलियों और अरबपतियों की बंदिनी क्यों हो गई ? ‘गरीबी हटाओ के नारे खोखले क्यों निकले ? ‘मेरा भारत महान वाक्य परिहास की विषयवस्तु क्यों बनकर रह गया ? राष्ट्रीय एकता और एकजुटता क्यों परास्त हो गई ? रिश्वत निंदनीय क्यों नहीं रह गई ? ‘सब चलता है के भरतवाक्य ने हमारी नैतिकता को क्यों निगल लिया ? गांधी जी का अधनंगा बदन हमारा आदर्श क्यों नहीं बना रह सका ? त्यागशील और निर्भय लाल बहादुर शास्त्री हमारे स्मरणीय श्रद्धा-पुरुष क्यों नहीं बने रह सके ? केवल चिनारी-पीढिय़ां ही क्यों श्रद्धेय बनकर रह गईं ? ‘कई सवाल हैं, जो हमारी क्षत-विक्षत स्वतंत्रता उठाती है और हम सबसे इनका जवाब चाहती है।
            हम सब जवाबदेह हैं कि हमने स्वतंत्रता को, लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए क्या किया है ? सब अपनी अंतरात्मा से पूछें कि हमने अपने कर्तव्य कितने निभाए हैं ? हमने कितनी सांसें केवल देशहित में सोचते और काम करते हुए ली हैं ? सत्य कीमत मांगता है और देशहित का सच उससे बड़ी कीमत मांगता है। राष्ट्रधर्म का नीति-वचन है कि कुल के लिए एक के, ग्राम के लिए कुल के, जनपद के लिए ग्राम के, देश के लिए जनपद के हित को छोड़ देना चाहिए। क्या हम कुछ भी छोडऩे के लिए तैयार हैं ?


-डॉ. राजकुमार मलिक