कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जब खुशी और
अवसाद एक साथ मन में उदित होते हैं। भारत का 67 वां स्वतंत्रता
दिवस का अवसर कुछ ऐसा ही है। जिस स्वतंत्रता को भारत के हजारों- लाखों लोगों ने कुर्बानियां
देकर अर्जित किया था और देशहित में सर्वस्व लुटाकर तिरंगे को गर्वोन्नत शीश के साथ
लहराने का जो शुभ अवसर पाया था, उसे हमारे राष्ट्र नायकों ने अपने क्षुद्र
स्वार्थों और सत्ता की हविश ने तार-तार कर डाला है। याद रखने की बात यह है कि पहले
स्वातंत्र्य-पर्व पर ही जनता को इन राजनेताओं की पापबुद्धि के प्रति सचेत कर दिया गया
था- ‘पहरुए ! जागते रहना। ’
चिंतनशील कवि की भाव धारा बार-बार छली
गई। न हमारे सीमांत निर्भय हो पाए और न इस देश की जनता ही सुख की नींद सो पाई। स्वतंत्रता-सेनानियों
ने बहुत विश्वास के साथ यह लोकतंत्र हमको सौंपा था- ‘हम लाए हैं
तूफान से कश्ती निकाल के। इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के ।’ आज
उस लोकतंत्र में भुखमरी है, भूखों की आत्महत्याएं हैं, जगह-जगह
देश के भूगोल का टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजन है, आगजनियां हैं,
गोलीबारी है, कफ्र्यू है, लाठीचार्ज है, स्थगित
संसद है, अरबों के घोटाले हैं, चोरी के ऊपर सीनाजोरी है। यदि
स्वतंत्रता किसी के पास है, तो लाल बत्तियों के पास है,
सरकारी ओहदों और वर्दियों के पास है। जो उनसे टकराता है, चूर-चूर
हो जाता है। वह चाहे खेमका हो या दुर्गाशक्ति नागपाल हो। आय से अधिक संपत्ति रखने वालों
का कुछ नहीं बिगड़ता। राजसत्ता में कोई किसी को बनाए रखता है और बदले में वह उसे सजा
पाने से बचाए रहता है। इसलिए यह आजादी अधूरी-अधूरी-सी है। एक पूरी आजादी का इंतजार
है।
पूरी
आजादी का इंतजार लोकतंत्र के सभी स्तंभों से हटकर है। इस महंगाई में जब कि प्याज 60-70 रुपए
का एक किलो बिक रहा है(वास्तविकता में तौल में वह आठ सौ ग्राम ही होता है- बरास्ते
मेहरबानी प्रशासनिक कृपालुता के) , न्याय या तो दुर्लभ है या बहुत महंगा
है। सब जानते हैं वकीलों की फीसों के बारे में। वहां आयकर वाले भी हाथ नहीं डालते।
एक बचा-खुचा रास्ता जनमत का है। वह रास्ता अखबारों से होकर जाता है। अखबार वाले भी
कम नहीं हैं। वे वाट जोहा करते हैं उस परमिट की, जो सत्ता के
गलियारों में ले जाता है। मतलब यह कि ‘हर ईंट हिलाने से हिलती,
हर जोड़ जरा कमजोर सा है कल गिर जाए या आज गिरे, गिरने-गिरने
का शोर सा है।’ इस अंजाम पर आ पहुंची है हमारे लोकतंत्र की बुलंद इमारत,
जिसकी नींव 15 अगस्त, 1947 को रखी गई है।
सवाल
है कि ऐसा क्यों हुआ ? हमारी
संसद बाहुबलियों और अरबपतियों की बंदिनी क्यों हो गई ? ‘गरीबी हटाओ’ के
नारे खोखले क्यों निकले ? ‘मेरा भारत महान’ वाक्य
परिहास की विषयवस्तु क्यों बनकर रह गया ? राष्ट्रीय एकता और एकजुटता क्यों
परास्त हो गई ? रिश्वत निंदनीय क्यों नहीं रह गई ? ‘सब
चलता है’ के भरतवाक्य ने हमारी नैतिकता को क्यों निगल लिया ? गांधी
जी का अधनंगा बदन हमारा आदर्श क्यों नहीं बना रह सका ? त्यागशील और
निर्भय लाल बहादुर शास्त्री हमारे स्मरणीय श्रद्धा-पुरुष क्यों नहीं बने रह सके ?
केवल चिनारी-पीढिय़ां ही क्यों श्रद्धेय बनकर रह गईं ? ‘कई
सवाल हैं, जो हमारी क्षत-विक्षत स्वतंत्रता उठाती है और हम सबसे इनका जवाब
चाहती है।’
हम
सब जवाबदेह हैं कि हमने स्वतंत्रता को, लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए
क्या किया है ? सब अपनी अंतरात्मा से पूछें कि हमने अपने कर्तव्य कितने
निभाए हैं ? हमने कितनी सांसें केवल देशहित में सोचते और काम करते हुए
ली हैं ? सत्य कीमत मांगता है और देशहित का सच उससे बड़ी कीमत मांगता है।
राष्ट्रधर्म का नीति-वचन है कि कुल के लिए एक के, ग्राम के लिए
कुल के, जनपद के लिए ग्राम के, देश के लिए
जनपद के हित को छोड़ देना चाहिए। क्या हम कुछ भी छोडऩे के लिए तैयार हैं ?
-डॉ. राजकुमार मलिक
No comments:
Post a Comment