Tuesday, March 6, 2012

सत्ता का सेमीफाइनल और राष्ट्रहित

डॉ. राजकुमार मलिक

सत्ता का सेमिफाइनल हो गया। कांग्रेस मणिपुर को छोड़, सब जगह परास्त हुई। क्षेत्रीय दल : अकाली दल (पंजाब), समाजवादी पार्टी (उत्तर प्रदेश) का दबदबा बरकरार रहा। भाजपा ने अपनी प्रतिष्ठा तो बचा ली, लेकिन उत्तर प्रदेश में जनाधार नहीं बन पाया। राष्ट्रीय दलों - कांग्रेस और भाजपा - की ताकत का न बढ़ पाना राष्ट्रीय चिंता का विषय है। भारत को विश्व-राजनीति में शक्ति बनकर उभरना है, तो इन दोनों दलों में से किसी एक को केंद्र की शक्तिशाली पार्टी के रूप में उभरना होगा- नहीं तो छोटे-छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग चलती रहेगी और केंद्रीय सरकार निर्भयता से लक्ष्य की ओर बढ़ नहीं पाएगी। राष्ट्र में वर्चस्व निर्णयों की निर्भयता से ही आता है।
पंजाब में अकाली दल की जीत विस्मयकारी है। मनप्रीत बादल की टांय-टांय फिस्स हो गई। सत्ता तो मिली नहीं, परिवार जरूर दो-फाड़ हो गया। अकाली दल-भाजपा की संयुक्त ताकत ने फिर से चुनाव जीतकर रिकॉर्ड बनाया। बादल के नेतृत्व में गांवों का वोट बैंक मजबूत बना रहा और शहरी मतदाताओं ने विकास को देखा और सराहा। कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में जो घोटाले हुए, भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा, देश के मतदाता ने विशेषकर पंजाब के मतदाता ने उस पर गुस्से का इजहार मतदान में किया है। उत्तराखंड हो, गोवा हो, पंजाब हो, उत्तर प्रदेश हो, सब जगह गैर कांग्रेसवाद हावी रहा। अन्ना हजारे तथा योगगुरु रामदेव के साथ किए गए बर्ताव ने जनमानस को कांग्रेस के खिलाफ किया।
अगर कांग्रेस-शासित केंद्र ने समय रहते हुए, मुलायम सिंह यादव और मायावती के ज्ञात स्रोतों से अधिक आय के मामले लटकाए न रखे होते और उन पर निर्णायक रुख अपनाया होता, विदेशों में पड़े कालेधन को उजागर करने तथा उसे वापस लाने में सक्रियता दिखाई होती, तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ता के नजदीक होती। समाजवादी पार्टी और बसपा खुद को बचाते रहे और कांग्रेस की जड़ें खोदते रहे।
कांग्रेस के पास एक विकल्प था जो उसने आजमाया नहीं और हार को गले में डाल लिया। विकल्प था- दंडनीयों को दंडित होने देना तथा उनके सहयोग की चिंता न करते हुए समय से पूर्व आम चुनाव करा डालना। यह साहस इंदिरा जी में था। सोनिया यह साहस नहीं दिखा पाईं। वे समाजवादी पार्टी, बसपा तथा तृणमूल कांग्रेस की बैसाखियों से चिपकी रही और सेमिफाइनल बुरी तरह से हार गई।