Wednesday, March 9, 2011

बदलता हुआ चंडीगढ़ शहर और इसमें रह रहे लोग


-राजकुमार मलिक

खुली, साफ और रोशनी से जगमगाती सड़कें  चंडीगढ़ के प्रतीक चिह्न 'खुले हाथÓ पर खुदी वे रेखाएं हैं, जो न तो बदली हैं और न ही निकट भविष्य में बदलेंगी। लेकिन इन सीधी सपाट भाग्य रेखाओं ने एक-दूसरे को अक्षांशों और देशांतरों की तरह काटकर जो वर्गाकार बस्तियां बना दी हैं, वे बहुत तेजी से बदली हैं और बदल रही हैं। इन्हीं चतुर्भुजाकार बस्तियों में, जिन्हें ली कार्बूजिए ने 'सेक्टरोंÓ के रूप में कल्पित किया था, में चंडीगढ़ की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मानवाकार संपदा निहित है, जो अपने-अपने वजूद को कायम रखने के लिए परस्पर टकराती हैं और फिर 'शांतिकुंजÓ की ओर चल पड़ती हैं।
एक समय था, जब बीसवीं सदी के पांचवें-छठे दशक में बसता हुआ यह शहर गांव के खेतों की गैर-समतल जमीन को अपने सीने पर विगत अतीत की तरह चिपकाए हुए था। सेक्रेटेरिएट, विधानसभा और हाईकोर्ट की भव्य और ऊंची-ऊंची इमारतें इस बाबू संस्कृति की मूलाधार थीं। धीरे-धीरे इन तीनों की भव्यता का एकाधिकार समाप्त हो गया और पद्मश्री नेक चंद के रॉक गार्डन, सेक्टर-22, सेक्टर-17 तथा सेक्टर-35 के बाजारों की रौनकें, इंडस्ट्रियल एरिया की औद्योगिक उत्पादकता और रामदरबार की आर्थिक सक्रियताएं सब मिलकर चंडीगढ़ मेें एक 'नए आकाशÓ की रचना करने लगीं। अब यह शहर 'बाबुओं का शहरÓ नहीं रह गया था, जो केवल 9 बजे प्रात: और 5 बजे सायंकाल सड़कों की वीरानगी को एकदम तोड़ देता था और बहुत जल्दी-जल्दी सोने की तैयारी करने लगता था। हालांकि यह मुंबई और दिल्ली की तरह रात-रातभर जागकर 'निशाचरी मायाÓ को कभी नहीं जिया, लेकिन 'डिस्कोथेकÓ और 'रात की पार्टियोंÓ की सरगर्मी यहां भी आई और उससे उठने वाले 'फसादÓ यहां भी अखबारों की सनसनी बढ़ाने लगे। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताओं ने वोट बैंक की संस्कृति को आगे बढ़ाया, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न जातियों के नामों से जुड़े विभिन्न 'भवनÓ यहां अस्तित्व में आ गए। राजनीतिक वजूद कायम रखने के लिए आंदोलन और प्रदर्शन भी बढ़े और उनका दमन भी बढ़ा। स्थिति यह हो गई कि रोज गार्डन के नजदीक प्रदर्शनकारियों का स्थल वहां से तबदील होकर सुनसान जगह श्मशानघाट के नजदीक ले जाना पड़ा। शहर की जनसंख्या के बढ़ते ही शहर में अपराध भी बढ़े । एक ओर शहर नव-धनाढ्यों के अपराधों से दहकने लगा तो दूसरी ओर झुग्गियों और झोंपडिय़ों के बीच पलने वाले बड़े-बड़े सपनों ने चोरियों और छोटी-छोटी आपराधिक वारदातों की संख्या भी बढ़ा दी।
शिक्षा के क्षेत्र में तो जैसे क्रांति सी आ गई। अच्छे, महंगे, कॉन्वेंट, मॉडल स्कूलों से लेकर एक दर्जन कॉलेज, डीम्ड विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय की चहल-पहल से शहर भी जवां सा लगने लगा। रही सही कसर कोचिंग सेंटरों और अन्य संस्थानोंं ने पूरी कर दी। आईटी पार्क खुलने से बड़ी-बड़ी कंपनियां अपना अड्डा जमाने लगीं हैं, इससे जीवनशैली भी बदली है। युवा शक्ति में यह बदलाव सबसे तेजी से आया है। नारियों में साडिय़ों का परिधान रोज की जिंदगी से गायब हो गया है और उसक स्थान 'टॉपÓऔर 'जींसÓ ने ले लिया है। साडिय़ां अब केवल 'उत्सवी परिधानÓ बन गई है। युवा हेयर स्टाइल को 'बॉलीवुडÓ या 'धोनीÓ प्रेरित करते हैं। यहां भी अब 'मॉल संस्कृतिÓ असर दिखाने लगी है। हालांकि यहां 'अपनी मंडीÓ से भी ज्यादा भीड़ होती है। कार 'स्टेटस सिंबलÓ बन गया है। सड़कें चौड़ी से और चोड़ी हो गई हैं। हर चौराहा 'लाल बत्तीÓ से स्वागत करने लगा है। भीड़ भाड़ का नियंत्रण 'डिवाइडरÓ करने लगा है और पार्किंग की समस्या बढ़ गई है।
सेक्टर-35 में होटलों की कतारें, जंक फूड, पीजा कॉर्नर ने खान-पान की एक परिभाषा पैदा कर दी है। आज हर घर में हर सदस्य के लिए अपना अलग टीवी होने के साथ-साथ अपनी गाड़ी रखने का प्रचलन भी तेजी
से बढ़ गया है। यहां जो नहीं बदला है वह है छायादार पेड़ों की कतारें जो बदलते मौसम में अपनी मनोरम छटा से शहर की सुंदरता में चार चांद लगा रही है। ये पेड़ सड़कों की तेज रफ्तार से भागती जिंदगी के मूक गवाह हैं। यहां नहीं बदली हैं रोज गार्डन में सुबह सैर करने वाले वृद्धों की टोली और सेहत के प्रति जागरूक वर्ग की सुखना की प्रात: और सायंकालीन सैर। नहीं बदली तो अमलतास के चटख पीले फूलों की आभा और गुलमोहर के लाल रक्तिम गुच्छों की रंगत, रोज गार्डन में भंवरों का गुंजन और आम पर बोलती कोयल की कूक। लेकिन अब चंडीगढ़ बदलेगा। इंटरनेशनल हवाई अड्डा बनने, मेट्रो के आ जाने से और आईटी पार्क के विकसित हो जाने से इस शहर की परिभाषा कुछ और ही होगी।
चंडीगढ़ के समाचार पत्र, जिनकी संख्या पहले से बहुत बढ़ गई है और बढ़ती जा रही है, प्राय: आपराधिक खबरों से अपने एक या दो पन्ने भरने लगे हैं और 'स्कूपÓ इन्हीं में खोजने लगे हैं। एक ओर राजनेता सुर्खियों में आने के लिए समाचार पत्रों की ओर दौड़-धूप करते रहते हैं, तो दूसरी ओर समाचार पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए सनसनीखेज समाचारों के पीछे भागते रहते हैं।  समाचार पत्रों का दर्शन यथास्थितिवाद में फंसकर रह गया है। विज्ञापन और सनसनीखेज समाचारों के द्वारा बढऩे वाली बिक्री के कटु यथार्थ ने उन रचनात्मक क्षेत्रों को नजरअंदाज कर दिया, जिनका संबंध मनुष्यता से है, जीवन के श्रेष्ठ आदर्शों से है, मानवीय संस्कृति के उद्विकास से है। पाठक समाचारपत्रों में किसी संगीत का, या किसी नृत्य का, या किसी साहित्यिक कृति का कलात्मक विश्लेषण पाने से वंचित हो गया है। यदि इन कलात्मक कार्यक्रमों की 'कवरेजÓ होती भी है तो वह केवल रस्म अदायगी के लिए। प्राय: ऐसे कार्यक्रमों का छपने वाला विवरण या तो आजकल आयोजकों द्वारा मुहैया करवा दिया जाता है या कई बार संवाददाता टेलीफोन पर ही सूचना एकत्रित कर लेते हैं। कभी-कभी निमंत्रण-पत्र से ही काम चला लिया जाता है और होता यह है कि जो कलाकार इसमें शरीक नहीं हो पाते हैं, उनकी कलात्मक प्रस्तुति की खबर छप जाती है। हां, जहां कहीं भोजन की या अन्य प्रकार के प्रलोभनों की पूर्ति की संभावना हो, वहां संवाददाता अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना नहीं भूलते। सबसे अधिक अन्याय अगर किसी के साथ होता है तो वह या तो गरीब जनता है या उसकी जुबान।
हिंदी भाषा की अपनी संस्कृति भी समाचार पत्रों में बेखटके ध्वस्त हो रही है। पहले भाषा के प्रति पूरी सतर्कता बरती जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। प्राय: या तो संवाददाता के अज्ञान के कारण या पू्रफ देखते असावधानी के कारण अनेक शब्द गलत वर्तनी में छपकर उन सभी प्रयासों का अंत कर देते हैं जो भाषा की समृद्धि के लिए किए जाते हैं। चाहिए तो यह था कि समाचार पत्र इस नए उगते शहर में इस अपसंस्कृति से टकराते जो नारी देह को नग्नता के साथ उपभोग की वस्तु के रूप में पाठकों की आंखों के आगे परोसते हैं या उन विज्ञापनों को छापने से अस्वीकार कर देते जिनमें अनैतिकता, स्वास्थ्य-क्षय, अपराध तथा मनुष्यता की गिरावट की दुर्गंध आती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। राष्ट्र-प्रेम का निर्वाह इनके लिए कठिन हो गया, श्रेष्ठ समाज की रचना की कल्पना इनके ध्येय से अलग हो गई। भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्भीक लड़ाई इनका उद्देश्य नहीं रह गया इसलिए चंडीगढ़ की पत्रकारिता मात्रा में अधिक होते हुए भी गुणवत्ता में सराहनीय स्तर तक नहीं आ सकी। शायद इसका कारण संपादक संस्था का तेजी से समाप्त हो जाना है।
देश की समस्याओं के प्रति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा रहा है। जिन समाचारों को यह मीडिया बार-बार दोहराता है उससे श्रेष्ठ जीवन मूल्य विकसित नहीं होते, बल्कि त्याज्य और हेय बातों के लिए अपरिपक्व मस्तिष्क वाली युवा शक्ति को कौतूहल और प्रोत्साहन मिलता है। अपराधों, आंदोलनकारियों की तोड़ फोड़, उपभोक्तावादी समाज की चमक-दमक, अप-संस्कृति के घिनौने रूप, बलात्कार आदि की घृणास्पद घटनाओं को इतना गौरान्वित करके दिखाया जाता है कि उनके प्रति परहेज के बजाये अनुकार्यता का भाव मन मेें जागता है। अच्छा तो यह है कि इस शहर का जितना नाम है उसी के अनुरूप यहां की पत्रकारिता की उत्कृष्टता भी हो।

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