Sunday, February 20, 2011

बहुत दूर है अभी देश के सपनों का बसंत

डॉ. राजकुमार मलिक

लो, फिर बसंत आ गया! फिर पराजित हो गया शिशिर, फिर पीले पत्तों के साथ झर
गया है हेमंत, फिर निकल आई है नई-नई कोंपलें, लहलहाने लगे हैं फिर से
सहमे-सहमे वन खंड, फिर मुस्कराने लगी हैं कलियां, फिर जम गया ऋतु चक्र
में मानवता का इतिहास। फिर सुरभित हो गया है घर-आंगन, लेकिन अगर कुछ नहीं
बदला है तो वह है मानव का मन, जो पीढ़ी-दर पीढ़ी, शहर-दर-शहर एकत्रित
करने के लिए सुख-भोग नहीं छोड़ पा रहा है अपनी निचाई, जिससे उबरने के लिए
सेना, पुलिस, न्यायालय, संसद, धर्म, उपदेश, नीति की लाख-लाख व्यवस्थाएं
खड़ी की गई हैं। हर बार बसंत आता है,चला जाता है, लेकिन मनुष्य है जो
वहीं का वहीं कीचड़ में धंसा खड़ा रह जाता है। वह नहीं सीखता है कुछ भी
बसंत की प्रफुल्लता से, जल की निर्मलता से, फूलों और पत्तियों के सुहास
से, वह फंसा रह जाता है काले धन को जमा करने की युक्तियों में, बाहुबल के
सहारे संसद में घुस जाने के जुगाड़ों में, राग और द्वेष के हिंसक
जमावड़ों में। बसंत आता है और पूरी प्रकृति में छा जाता है, पत्ती-पत्ती
बदल जाती है, लेकिन मनुष्य की प्रकृति नहीं बदलती। मनुष्य चाहता तो है
उल्लसित होना, लेकिन उसकी कोशिशें इतनी विवेकहीन हो जाती है कि वे उसे
उल्लास देने की बजाय यातनाओं के व्यूह में फंसा लेती हैं। यदि मनुष्य
बसंत से कुछ सीखता तो वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलता, शिखरस्थ होकर मौन
नहीं बना रहता। यदि मनुष्य बसंत को ठीक से निहारता तो वह किसी के बहते
आंसू पोंछता या किसी भूखे बच्चे को दुलराता, किसी अभागिन को सतीत्व हरण
से बचाता, किसी कांपते चरण को उंगली पकड़कर सड़क पार कराता। लेकिन मनुष्य
है कि इस जुगाड़ में लगा है कि दुनिया की सारी संपदा उसकी जेब में आ जाए
, भूखे किसानों के मुंह के निवाले उसके गोदामों में भर जाएं, पूरी दुनिया
बेशक तड़पती रहे और वह सुख सपनों में खोया रहे। बसंत तो आया है, लेकिन
मनुष्य के मन की कलियां खिली नहीं हैं। बसंत तो आया है लेकिन सड़कों पर
मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है, बसंत तो आया लेकिन निर्धन की आंखों में छाया
हुआ ज्वार-भाटा कम नहीं हुआ है। पता नहीं ऐसा बसंत कब आएगा जब मनुष्य का
मन पवित्र हो जाएगा, वातावरण की अशुचिता कम हो जाएगी, जो कुछ सत्य है,
शिव है, सुंदर है, उसको ही कहा-सुना जाएगा। बसंत ठकुरसुहाती नहीं करता,
निश्छलता से अपना मन खोलता है।
बसंत आता है, तो निराला जी की याद को घर-आंगन में लाकर बिखरा देता है,
सरस्वती की पूजा को दोहरा देता है। निराला की यादें एक बार फिर जगाती है,
भारती की जय-विजय करने लगती है, राष्ट्र को शक्तिरूप में प्रतिष्ठित कर
जाती है। निराला की यादें जगा-जगाकर थक जाती हैं और हम हैं कि पंक में
गड़ रह जाते हैं, भ्रष्टता के आगे आंखें मूंदे खड़े रह जाते हैं, काले धन
के आगे डटे-सहमे मौन धारे हुए संसद की परिक्रमा कर राजपथ में खो जाते
हैं। बसंत आता है, 'इदं राष्ट्राय इदन्नमम्Ó को जगह-जगह अंकुरित कर जाता
है, किसानोंंं की आत्महत्याओं के प्रति चेतावनी दे जाता है, मंडी बनने से
देश को बचाने के लिए गांवों में ध्यान के बीजारोपण के लिए मंत्र दे जाता
है। कह जाता है कि बसंत महानगरों में नहीं आता, वह तो गांवों में ही आता
है, फूली हुई सरसों के खेतों में ही वह सरसाता है। इसलिए बसंत देखना है
तो गांवों की ओर चलो। बसंत अनुभव करना है तो मल्टीनेशनल्स के चंगुल से
निकलो, बसंत मनाना है तो कारपोरेट जगत से बाहर निकल जनपथ पर आओ और जनता
जनार्दन के साथ उत्सवी बनो। बसंत आकर दूसरों को सुखी बनाता है। हम बसंत
से अभी मीलों दूर हैं, अभी अपने में सिमटे हुए हैं, अभी अपना मनोराज्य
विदेशी बैंकों से बाहर निकाल नहीं ला पा रहे हैं। बसंत राजा ैहै, ऋतुपति
है, उत्सवधर्मा है, लोक को आह्लाद देनेवाला है, बसंत ढोंग नहीं करता।

No comments:

Post a Comment